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Tuesday 9 February 2010

योग दर्शन

भारतीय योग शास्त्र
योग शब्द का अर्थ है जुडना, यदि इस शब्द को आध्यात्मिक अर्थ मे लेते है तो इस का तात्पर्य आत्मा का परमात्मा से मिलन और दोनो का एकाग्र हो जाना है। भक्त का भगवान से, मानव का ईश्वर से, व्यष्टि का समष्टि से, पिण्ड का ब्रह्मण्ड से मिलन को ही योग कहा गया है, हकीकत मे देखा जाए तो यौगिक क्रियाओ का उद्देश्य मन को पूर्ण रुप से प्रभु के चरणो मे समर्पित कर देना है । ईश्वर अपने आप मे अविनाशी और परम शक्तिशाली है। जब मानव उस के चरणो मे एकलय हो जात है तो उसे असीम सिद्धि दाता से कुछ अंश प्राप्त हो जाता है, उसी को योग कहते हैं।
चित वृतियों पर नियंत्रण और उस का विरोध ही दर्शन शास्त्र में योग शब्द से विभूषित हुआ है। जब ऎसा हो जाता है और ऎसा होने पर उस व्यक्ति को भूत और भविष्य आंकने मे किसी प्रकार की कोई परेशानी नही होती, वह अपने संकेत से ब्रह्मण्ड को चलायमान कर सकता है।
भारतीय योग शास्त्र मे इसके पांच भेद बताए गए हैं-
हठ योग
ध्यान योग
कर्म योग
भक्ति योग
ज्ञान योग
मूलत: मनुष्य मे पांच मुख्य शक्तियां होती है उन शक्तियों के अधार पर ही योग के उपर लिखे भेद या विभाजन संभव हो सका है। प्राण शक्ति का हठ योग से, मन शक्ति का ध्यान योग से, क्रिया शक्ति का कर्म योग से, भावना शक्ति का भक्ति योग से, बुद्धि शक्ति का ज्ञान योग से पूर्णत: सम्बन्ध है । वर्तमान काल मे इस विष्य पर जो ग्रन्थ प्राप्त होते है उन मे हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, गोरख संहिता, हठ योग सार, तथा कुण्ड्क योग प्रसिद्ध हैं। पतांजलि का योग दर्शन इस सम्बन्ध मे प्रमाणिक ग्रन्थ माना गया है।
महार्षि पतांजलि ने चित की वृतियों का विरोध योग के माध्यम से बताया है और उनके अनुसार योग के आठ अंग हैं, जो कि निम्नलिखित हैं
१ यम २ नियम ३ आसन ४ प्रणाय़ाम ५ प्रत्याहार ६ धारणा ७ ध्यान
८ और समाधि
ऊपर जो आठ अंग बताए गए हैं उनमे से प्रथम पांच अंग बाहरी तथा अन्तिम तीन अंग भीतरी या मानसी कहे गए हैं।
यम:- अहिंसा, सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह का व्रत पालन ही 'यम' कहा जाता है।
नियम:- स्वाध्याय, सन्तोष, तप, पवित्रता, और ईश्वर के प्रति चिन्तन को नियम कहा जाता है।
आसन:- सुविधापूर्वक एक चित और स्थिर होकर बैठने को आसन कहा जात है।
प्राणायाम:- श्वास और नि:श्वास की गति को नियंत्रण कर रोकने व निकालने की क्रिया को प्राणायाम कहा जाता है।
प्रत्याहार:- इन्द्रियों को अपने भौतिक विषयों से हटाकर चित मे रम जाने की क्रिया को प्रत्याहार कहा जाता है।
जब यह पांच कर्त्तव्य सिद्ध हो जातें हैं या इनमे से जब कोई साधक पूर्णता प्राप्त कर लेता है तभी उसे योग के आगे की क्रियायों मे प्रवेश की अनुमति दी जाती है। प्रत्येक साधक को चाहिए कि वह बाह्य अभ्यासों को सिद्ध करने के बाद ही आगे के तीन अभ्यासों मे प्रवेश करें तभी उसे आगे के जीवन मे पूर्णता प्राप्त हो सकती है।
धारण:- चित्त को किसी एक विचार मे बांध लेने की क्रिया को धारण या धारणा कहा जाता है।
ध्यान:- जिस वस्तु को चित मे बांधा जाता है उस मे इस प्रकार से लगा दें कि बाह्य प्रभाव होने पर भी वह वहां से अन्यत्र न हट सके, उसे ध्यान कहते है।
समाधी:- ध्येय वस्तु के ध्यान मे जब साधक पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नही रहता है तो उसे समाधी कहा जाता है।

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