Tips related to

Thursday, 11 February 2010

मेरा शंखनाद

 
 आज अपनी प्यास लेके मैं चला हूँ 
क्योंकि हर पग में ही बादल से छला हूँ
दूर मुझसे है बहुत ही साहिल-ये-जग 
स्नेह से मरघट के पीछे मैं चला हूँ 

देश की लपटों से मैं झुलसा हुआ हूँ
किसलिए मुझे हाथ देते अमन वाले
जो यहाँ पे रक्त पीते देवता है
पूजते उनको ही है ये चमन वाले

मानता हूँ  स्वर्ण का तेरा महल है
जनता हूँ पर्ण की  मेरी अटरिया
तुम जलाते हो वह से सबको लेकिन
मन ही मन में मैं यहाँ जलता रहा हूँ

स्वर्ण वालो बोलो इसका मोल क्या है
एक दाने को भी तरपा जो शिशु है
है यहाँ के श्मशान  में लाश राखी
चाहता हूँ  मन की अग्नि से जला दू

है यहाँ की जिंदगी खाली कटोरी
बेटी और बहुवों की लगती है बोली
एक बेबस रोज बढ़ता सोचता है
क्यूँ यहाँ पे दुल्हने सिन्दूर धोती

अपना ये अस्तित्वा खुद ही खो चला हु
आदमी हूँ  मैं की या की मैं चिता हु
चाहता हूँ  मैं महाभारत करा दू
आज घर में सरे अर्जुन मैं बना दू
पर यहाँ घर-घर में दुर्योधन पला है
और दुर्योधन के संग शकुनी बढ़ा है
चाहता हूं  हाथ में मशाल लेके
सरे जग को संग अपने मैं जला दूं.

0 comments:

Post a Comment

Twitter Delicious Facebook Digg Stumbleupon Favorites More

 
Design by Free WordPress Themes | Bloggerized by Lasantha - Premium Blogger Themes | 100 Web Hosting